घटिया और गैरबराबरी की शिक्षा की वकालत करता है ‘शिक्षा का अधिकार’ बिल: डॉ. अनिल सदगोपाल
डॉ. अनिल सदगोपाल देश के जाने-माने शिक्षाविद् हैं और केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार द्वारा लाए गए ‘शिक्षा का अधिकार’ बिल के खिलाफ पूरे देश में जन जागरण अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं। वे इस बिल का विरोध करने के लिए बने ‘ऑल इंडिया फोरम फॉर राइट टू एजकेशन’ के सह अध्यक्ष हैं। डॉ. सदगोपाल 2005 में‘शिक्षा का अधिकार’ बिल पर काम करने के लिए वर्तमान केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के नेतृत्व में बनाए गए ‘केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड’ (सीएबीई) के सदस्य भी रहे हैं। तब भी उन्होंने इस बिल के वर्तमान स्वरूप का विरोध किया था और कई आपत्तियां दर्ज कराईं थी, लेकिन उन्हें अनसुना कर दिया गया। डॉ. सदगोपाल का कहना है कि यूपीए सरकार इस बिल को ऐतिहासिक उपलब्धि करार दे रही है, लेकिन हकीकत में ये देश की जनता के साथ एक ऐतिहासिक धोखा है। ‘शिक्षा का अधिकार’ बिल से जुड़े मुद्दों पर ‘मेरी खबर डॉट कॉम’ के मुख्य उपसंपादक राजीव रंजन ने डॉ. अनिल सदगोपाल से विस्तृत बातचीत की, पेश हैं संपादित अंश:
आपको इस बिल पर आपत्ति है या इसके प्रारूप पर?
शिक्षा का अधिकार सबको मिलना चाहिए, हम इसका विरोध हम नहीं करते। लेकिन, यह बिल शिक्षा का अधिकार देता नहीं है, बल्कि संविधान में जो अधिकार दिए गए हैं, उसे भी छीनता है। यह बिल अधिकार देने के जो दावे करता भी है, वे भी विकृत रूप से दिए गए हैं। उससे बच्चों को गैरबराबरी की घटिया शिक्षा और भेदभावपूर्ण शिक्षा मिलती रहेगी।
आपके अनुसार इस बिल में क्या खामियां हैं? आपकी मुख्य आपत्तियां क्या हैं?
सबसे पहले छह साल से नीचे बच्चों को हमारा संविधान संतुलित आहार, पूर्ण स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा का अधिकार देता है। हमारे देश में ऐसे 17 करोड़ बच्चे हैं। इस नए कानून के जरिए उन 17 करोड़ बच्चों का अधिकार छीन लिया गया है, क्योंकि इस नए कानून में सिर्फ छह से 14 साल तक के बच्चों की बात की जा रही है।
इसके साथ, इन बच्चों (छह से 14 साल तक) को मु्फ्त शिक्षा दी जाएगी उस रीति से, जो सरकार कानून बनाकर तय करेगी। यानी यह अधिकार भी एक शर्त के तहत दिया जा रहा है। शर्त सरकार के हाथ में है। सरकार कौन-कौन सी शर्तें लगाती है, यह सरकार के हाथ में है। सरकार क्या-क्या देती है, क्या नहीं देती है, यह सरकार के हाथ में है। इसमें सरकार ने कई तरह की शर्तें लगा दी हैं, जो मौलिक अधिकार की अवधारणा पर चोट है, इसलिए हम इसका विरोध कर रहे हैं। मौलिक अधिकार गैरबराबरी, घटिया और भेदभाव शिक्षा का नहीं हो सकता और अगर आपका उत्तर इन तीनों सवालों के जवाब में ना है, तो फिर आप इस बिल के साथ खड़े नहीं हो सकते। ये बिल इन तीनों मापदंडों पर खरा नहीं उतरता इसलिए हम इसका विरोध कर रहे हैं।
तीसरी बात, इसमें जितने प्रावधान हैं, वे कुल मिलाकर निजीकरण और बाजारीकरण को बढ़ावा देते हैं। यह बिल पास होने के बाद निजी स्कूलों की संख्या में तेजी से इजाफा होगा। सरकारी स्कूलों की व्यवस्था कालांतर में ध्वस्त हो जाएगी। उनकी गुणवत्ता गिर जाएगी। मां-बाप और अभिभावक अपने बच्चों को वहां से निकाल लेंगे और सस्ते प्राइवेट स्कूलों में भर्ती कराते जाएंगे। यह निजीकरण और बाजारीकरण की रफ्तार को बढ़ावा देने वाला है।
आपको ऐसा क्यों लगता है कि ये बिल निजीकरण और बाजारीकरण को बढ़ावा देगा? इस धारणा के पीछे क्या लॉजिक है?
कई लॉजिक हैं। इस बिल में एक स्कूल के न्यूनतम मानदंडों का शेड्यूल दिया गया है, वो घटिया है। यानी जो हिसाब आज दिया गया है, वह पहले से भी घटिया है। मैने वर्तमान सरकारी आंकड़ों को देखकर हिसाब लगाया है कि दो-तिहाई प्राइमरी स्कूलों पर इस बिल से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वे जैसे हैं, वैसे ही रहेंगे। हां एक-तिहाई पर फर्क पड़ सकता है। बहुत चालाकी से बनाया गया है यह बिल।
दूसरी बात, मिडल-प्राइमरी स्कूल (छठी से आठवीं कक्षा तक) में उदाहरण के तौर पर शिक्षक और विद्यार्थियों का अनुपात 35:1 है। यानी 35 बच्चों पर एक शिक्षक। इस बिल में भी यही कहा गया है, जबकि आज भी कई स्कूलों में यह अनुपात 29:1 और कई जगह 34:1 का है। इनकी संख्या तेजी से बढ़ी है। यानी जो मौजूदा हालात हैं, इस बिल में उसे और ज्यादा बुरा करने की बात कही जा रही है। मैं कई बार मजाक में पूछता हूं कि क्या आप जिन स्कूलों में 29 और 34 छात्रों पर एक टीचर हैं, उन स्कूलों से अतिरिक्त शिक्षकों को वापस बुलाने वाले हैं?
अभी तक मिडिल स्कूलों में कला के लिए कोई अलग शिक्षक होगा या खेलकूद के लिए कोई अलग शिक्षक होगा, इस बिल में इस पर कोई दृष्टि नहीं डाली गई है।
यह इस बिल का छठा ड्राफ्ट है, जो यूपीए सरकार ने पास किया है। इससे पहले पांचवां ड्रॉफ्ट फरवरी 2008 में पास किया गया था, जिसके नीचे एक लाइन खींचकर लिखा गया था- वांछनीय। अंग्रेजी में लिखा था- डिजायरेबल। इसके तहत पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए बिजली का कनेक्शन, एक कंप्यूटर, टेलीफोन कनेक्शन डिजायरेबल था। जब यह छठा ड्रॉफ्ट सामने आया तो यह वांछनीय लाइन पूरी तरह साफ हो गई। यानी अब पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए ये बातें जरूरी तो छोडि़ए, वांछनीय भी नहीं है। ये तीनों चीजें भी नहीं मिलने वाली हैं। यानी सरकारी स्कूलों की जो हालत अब है, वह और भी बुरी होने वाली है।
एक और बात इसमें लिखी गई है कि सरकारी स्कूल टीचरों से गैर शिक्षकीय काम नहीं कराए जाएंगे सिवाए जनगणना, पंचायत से लेकर संसद तक के चुनावों और आपदा राहत कामों के। आपदा राहत को परिभाषित नहीं किया गया। यानी जनगणना और चुनावों के अलावा बाकी सब काम अब आपदा राहत में डाल दिए जाएंगे। चाहे वो बच्चों को दवाई पिलाने का काम हो या कोई महामारी फैल रही हो, उसमें सरकारी स्कूल के टीचर लगा दिए जाएंगे। और, उसी दौरान प्राइवेट स्कूल के टीचर पढ़ाते रहेंगे।
मैं इसलिए कहता हूं कि हमारे सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब बच्चे, आदिवासी, दलित और मुस्लिम बच्चे हमेशा भारत के लोकतंत्र के लिए त्याग करते हैं क्योंकि भारत के लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए उनकी पढ़ाई खराब की जाती है। प्राइवेट स्कूल के बच्चे भारत के लोकतंत्र के लिए कोई काम नहीं करते हैं क्योंकि उनकी पढ़ाई लगातार चलती रहती है। यह सब काम सरकारी स्कूल और प्राइवेट स्कूल के बीच भेदभाव बढ़ाते हैं, तो अपने आप प्राइवेट स्कूलों का परफॉर्मेंस अच्छा होगा। प्राइवेट स्कूलों का रिजल्ट अच्छा आता रहेगा।
फिर उनके द्वारा जो फीस ऐंठी जा रही है, उन पर नियंत्रण के लिए कोई जिम्मेदारी राज्य सरकार को नहीं दी गई है। राज्य सरकार के कर्तव्यों की जो सूची है, उसमें कहीं नहीं लिखा है कि उनका काम प्राइवेट स्कूलों की फीस को नियंत्रित करना है। पहले लिखा था किसी जमाने में। जब तीसरा ड्रॉफ्ट आया था, उसमें लिखा था। बाद में गायब कर दिया गया। तो, बड़े सोचे-समझे तरीके से प्राइवेट स्कूलों के खिलाफ जो प्रावधान थे, वो निकाल दिए गए।
अब देखिए विडंबना क्या होती है। दिल्ली राज्य में ‘दिल्ली स्टेट एजुकेशन एक्ट 1973’ लागू होता है। उसमें लिखा है कि कोई भी प्राइवेट स्कूल बिना सरकार की अनुमति के अपनी फीस नहीं बढ़ा सकता। यहां के प्राइवेट स्कूलों ने मनमाने तरीके से अपनी फीस बढ़ा दी। यहां के अभिभावकों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, डाटा इकट्ठा किया और सरकार को बताया। सरकार ने इस एक्ट के तहत ही कमेटी बना दी प्राइवेट स्कूलों की फीस को नियंत्रित करने के लिए। कमेटी बेकार रही। वो प्राइवेट स्कूल लॉबी से डर गयी। लेकिन, उस एक्ट में यह प्रावधान है कि कमेटी बन सकती है। लेकिन, अब शिक्षा के अधिकार बिल को पूरे देश में लागू किया जा रहा है।
सरकार नहीं चाहती कि प्राइवेट स्कूलों पर किसी तरह का नियंत्रण हो। इसका मतलब यह है कि सरकार निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। सरकारी स्कूल व्यवस्था को ध्वस्त किया जा रहा है। तो ये तरीके होते हैं।
इसमें बिल में प्रावधान है कि प्राइवेट स्कूलों को 25 फीसदी गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए कहा जाएगा। यह बहुत ही फसाद वाला मामला है। इसका गहराई से अध्ययन कीजिए। इस समय औसतन राज्य सरकारें एक बच्चे पर औसतन दो से ढाई हजार रुपए प्रति वर्ष खर्च करती हैं। यह खर्च राज्य सरकार प्राईवेट स्कूलों को देगी, कानून में ऐसा कहा गया है।
अब इस मामले पर गौर करें तो पाएंगे कि दो प्रकार के स्कूल होंगे- एक, जिनकी फीस ढाई हजार रुपए सालाना से कम है और दूसरे, जिनकी फीस सालाना ढाई हजार से ज्यादा है। जिन स्कूलों की फीस ढाई हजार रुपए से कम है, वे अपनी फीस बढ़ा देंगे। जिन स्कूलों की फीस पहले से ही ढाई हजार से ज्यादा है वो क्या करेंगे? वो इन बच्चों पर फालतू पैसा नहीं खर्च करेंगे। नाप तोल कर ढाई हजार रुपए तक खर्च करेंगे।
और, इसका मॉडल दिल्ली पब्लिक स्कूल ने दस साल पहले तय कर दिया था। वो शाम को चार बजे आसपास के झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों को बुलाकर उन्हें पढ़ाते थे। उस समय, जब अमीर बच्चे अपने घर चले जाते थे। उन गरीब बच्चों को किसी वोलेंटरी टीचर से पढ़वाते। वो तो 2500 रुपए भी खर्च नहीं किया करते थे। जब उन्होंने यह कार्यक्रम शुरू किया तो हमने उनकी प्राचार्या को पत्र लिखा। उनकी प्राचार्या को बाद में ‘पद्मश्री’ भी मिला। हम लोगों ने उस समय कहा था कि यह वो मॉडल है, जिसमें सुबह अच्छी शिक्षा दी जाती है और शाम को समानता की शिक्षा दी जाती है।
ये मॉडल पहले से शुरु हो गया है। भोपाल में कई स्कूल हैं, जिन्होंने ये जानते हुए कि ये मॉडल शुरू होने वाला है, इसे पहले से शुरू कर दिया है। यह पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का मॉडल है। अगर आप स्कूल वाउचर के मॉडल से परिचित हैं, तो इसका मतलब ही यही है कि सरकार कहेगी बच्चों से आप उस प्राइवेट स्कूल में जाओ हम आपकी फीस उस स्कूल में भर देंगे। तो, यह स्कूल वाउचर का इंडियन मॉडल है।
अगर प्राइवेट स्कूलों को 2500 रुपए फीस के नाम पर दे ही दिए गए तो वहां तो 2500 से ज्यादा भी फीस ली जाती है। पिकनिक या अन्य तरह के खर्चे होते हैं। फंक्शन के नाम पर, पेंटिंग, कंप्यूटर फीस के नाम पर पैसे लिए जाते हैं। वो फीस ये बच्चे कहां से लेकर आएंगे, इस बात का इसमें कोई जिक्र नहीं है। अंत में इन बच्चों से वो वाली फीस तो नहीं ली जाएगी, लेकिन इन्हें टप्पर के नीचे पढ़ाया जाएगा।
आखिरकार, सरकार यह शिक्षा बच्चों को आठवीं क्लास तक दिलवाएगी क्योंकि अधिकार आठवीं कक्षा तक का है। उसके बाद उन बच्चों को बाहर निकाल दिया जाएगा।
कई बच्चे देर से शिक्षा शुरू करते हैं, तो मान लीजिए कि कोई बच्चा 14 साल की उम्र तक आठवीं तक पहुंच ही न पाए तो?
देखिए, यह तो उसमें लिख दिया है कि जो बच्चे 14 साल की उम्र तक पहुंच जाते हैं और उनकी आठवीं तक की शिक्षा पूरी नहीं हो पाती है, तो सरकार उनको तब तक रखेगी जब तक उनकी आठवीं तक की शिक्षा पूरी नहीं हो जाती। ये प्राइवेट और पब्लिक दोनों स्कूलों में रखी जाएगी।
लेकिन, सवाल यह है कि आठवीं के बाद बच्चा क्या करेगा? आज आठवीं की कीमत क्या है, आप बताइए? बारहवीं तो कम से कम न्यूनतम जरूरत है उच्च शिक्षा की। चाहे वो इंजीनियरिंग की परीक्षा हो या मेडिकल की परीक्षा हो। जो बिल बारहवीं तक की शिक्षा की गारंटी नहीं देता, जो आपको उच्च शिक्षा के समान अवसर नहीं देता, आपको आगे जाने के अवसर नहीं देता, उसका क्या मतलब है?इसका मतलब है आपको पीछे रखा जा रहा है। यही हमारी तकलीफ है। यह बिल छह साल तक के बच्चों को अधिकार नहीं देता। बच्चों को कोई अधिकार नहीं देता। जो देता है, गैरबराबरी के देता है। इसलिए, हम इसका विरोध कर रहे हैं।
आप भी तो शिक्षा का अधिकार बिल पर काम करने के लिए बने केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य थे?
मैं जब बोर्ड में था, तभी से इसका विरोध कर रहा हूं। उसी समय से मैं इसके खिलाफ आवाज उठा रहा हूं। मेरी 80 पेज की लिखित आपत्तियां कपिल सिब्बल कमिटी में दर्ज हैं।
मैने कपिल सिब्बल से पांच जून को आखिरी बैठक में कहा कि मैंने आपको 80 पेज के लिखित ऑब्जेक्शन दिए हैं, सारे डेटा के साथ, आप उन्हें कमेटी की रिपोर्ट और पब्लिक डेटा में शामिल कर लीजिए। उन्होंने पूछा कि उससे क्या होगा, तो मैने कहा कि उससे यह होगा कि यह रिकॉर्ड मौजूद रहेंगे। भविष्य में जो कोई शिक्षा का अध्येता इन कागजातों को देखेगा, वो कहेगा कि उस समय एक अक्लमंद व्यक्ति था, जो सही बात कर रहा था। तो, उन्होंने बात मान ली और मेरी आपत्तियां रिपोर्ट में शामिल कर लीं।
वो जान लेगा कि लड़ाई उस समय भी चल रही थी और आगे भी जारी रहेगी।
‘शिक्षा का अधिकार’ विधेयक पर अभी तक लोगों को कितना समझा पाए हैं आप?
इस मुद्दे पर कौन-कौन से लोग जुड़े हैं आपके साथ?
यह आसान काम नहीं रहा है। पिछले चार सालों में उन लोगों की संख्या काफी बढ़ी है, जो इस विवाद को समझने लगे हैं। मध्यम वर्ग के बीच इसे पहुंचाने में बहुत वक्त लगेगा क्योंकि वो प्राइवेट स्कूलों से जुडा़ हुआ है। उसे इन बातों को समझने में अभी वक्त लगेगा। मीडिया भी मध्यमवर्ग की बातें ही दिखाता है। अभी आपने यहां देखा कि कई राज्यों से लोग यहां आए हैं, नौजवानों में बहुत गुस्सा है। वे अपने स्तर पर लोगों को इसके बारे में जानकारी दे रहे हैं। ये जो अखिल भारतीय फोरम बना है, यह कपिल सिब्बल कमेटी के चार साल बाद बना है। जून में बना है। इसमें 12 राज्यों के शिक्षक और विद्यार्थी संघ अपनी खुशी से शामिल हुए हैं। हमने राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन फाइल किया, तो हमने मेधा पाटकर को फोन किया, संदीप पांडे को फोन किया। तो वे इस पर हस्ताक्षर करने को राजी हो गए।
यह बात आज से चार साल पहले संभव नहीं थी। अब वे भी समझ गए हैं। वे जन-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ रहें है और समझ गए हैं कि शिक्षा भी आम लोगों के जीवन में एक अहम संसाधन है।
हमारा भोपाल में जो सम्मेलन हुआ, उसमें ‘नर्मदा बचाओ’ आंदोलन की लड़ाई लड़ने वाले जमीन से जुड़े लोग भी आए। बर्गी पर बांध बनाया गया है, उसका विरोध करने वाले लोग भी आए। मछली पकड़ने वाले लोग भी आए। मुझे ऐसे लोगों के आने की ज्यादा खुशी है। शिक्षक संगठन के लोग तो आ ही जाएंगे या नहीं भी आएंगे, लेकिन मुझे ऐसे लोगों के आने की ज्यादा खुशी है। यह सब नई बातें हैं, जो पहले नहीं थी।अगर इसी हिसाब से देश के बुद्धिजीवी आते रहें, तो तस्वीर बदल जाएगी।
इस तरह का गुस्सा अगर देश के बुद्धिजीवियों में आ जाए तो यह लड़ाई और मजबूत हो जाएगी। विश्व बैंक ने अपनी जो नीतियां देश पर थोपी हैं, वो देश के बुद्धिजीवियों को चुप कराकर थोपी हैं। अगर देश के बुद्धिजीवी 20 साल से बोलते रहते, तो देश की आज यह दुर्गति नहीं होती।
आप देखिएगा कि जैसे-जैसे प्राइवेट स्कूलों की फीसे बढ़ेगी, मध्यम वर्ग भी इसके खिलाफ खड़ा हो जाएगा।
8:17 AM
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